काश वो दिन फिर से वापस आ जाये
ये बात करीब सात या आठ साल पुरानी है। कभी- कभी लगता है कि काश वो पुराने दिन फिर वापस आ जाये! शायद 2015 की बात है। उस समय नवरात्र के नौवां दिन था और उसी समय पापा जी ने अपनी पसंद की गाड़ी ली।जिसमें नौ या दस लोग आराम से बैठ सकतें थे।
गाड़ी ली कुछ दिन घर में रखा और नवरात्र के नौवें दिन घुमने जाने की योजना बनाई। हम सब भाई बहनें तो इसी फिराक में रहते थे कि, कब हम बाहर घुमने जाए। और जैसे ही पापा ने कहा कि आज दिन में सभी तैयारियां कर लो पैकिंग वगैरह की क्योंकि हम सब आज रात को जगदलपुर और वहां से दंतेवाड़ा जा रहें हैं।
लेकिन ये हमारे पापा थे आदत से मजबूर दस लोगों के बैठने की जगह पर पन्द्रह लोगों को बैठाया।
सामने ड्राइवर,पापा और एक पतले - दुबले से बच्चें को बिठा लिया। उस समय ठंड की शुरुआत हो चुकी थी और हम सबने दिन में तैयारी कर ली और रात को 10 बजे के करीब घर से निकलने लगे। पर उसमें भी सबकी किच - किच जारी थी।
पापाजी - मधु... मेरे कपड़े और मेरी स्लीपर रख लिये ना?
मां - हां, भई सब रख लिए हैं। मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि , इतने ठंड में स्लीपर पहन कर कौन घूमता है।
पापाजी - दूसरों का तो पता नहीं पर मैं तो ऐसा ही हूं। अपने गर्म कपड़े रखें हैं या... बोलते-बोलते पापा चुप हो गये और हम भाई-बहनों की ओर देखा। उनके अधूरे शब्द यही थे कि गर्म कपड़े रखें हैं या वहां से खरीदने की योजना बनाई है।
लेकिन उन्हें तुरंत ही अपनी गलती का अहसास हुआ और वो चुप भी हो गये थे लेकिन हमारी माताराम बहुत समझदार हैं। अधुरी बात का पूरा आशय समझ कर पापा पर बरस पड़ी और हम भाई-बहन कभी घड़ी को देखते तो कभी मां - पापा को। जैसे - तैसे उनका मामला शांत ही हुआ था कि, हम भाई - बहनों की लड़ाई छिड़ गई। और लड़ाई का अहम मुद्दा था कि, खिड़की के पास कौन बैठेगा? ( आप सब माने या ना माने पर अधिकतर घरों में जब भी यात्रा पर जाने का समय आता है। एक छोटी - मोटी और कभी - कभी एक बड़ी नोंक - झोंक हो ही जाती है ) और उस समय तो हमारी अच्छी खासी लड़ाई हो गई थी। पापा ने हम सब को गरीयाते हुए चुप कराया और खिड़की की एक जगह छोटी बहन को मिली। छोटे होने का एक फायदा ये भी होता है कि, आपको कुछ पाने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। घर में तो बिल्कुल भी नहीं। छोटी ने अपने छोटे पन और मासूम सी शक्ल का फायदा उठाया और बड़े रूतबे के साथ खिड़की वाली सीट पर बैठ गई। बचे मैं और भाई, मुझे लगा कि शायद लड़की होने और लाड़ली होने का कुछ तो फ़ायदा मिलेगा और मुझे भी खिड़की वाली सीट मिलेगी। यही सोचकर मैं खुश भी लेकिन, पापा को मेरी खुशी बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने भाई को खिड़की वाली सीट पर बैठा दिया। उस वक्त मुझे लगा कि सब मोह माया है अपना इस संसार में कुछ है ही नहीं। भाई भी मुझे अगूंठा दिखाते हुए किसी राजकुमार की तरह खिड़की के पास बैठ गया और मैं भरी आंखों के साथ गुस्से में दोनों नमूनों को देखती खड़ी रही। तभी पापा ने कहा!
सोना, तुझे खिड़की के पास इसलिए नहीं बिठाया क्योंकि तेरी आदत है अपने हाथ को बाहर करके बैठने की और ऐसे करते हुए कब सो जाती है तुझे खुद पता नहीं रहता। आज रात भर का सफर हैं आराम से सोते हुए जाना। कल सुबह - सुबह खिड़की के पास वाली सीट तेरी। उन्होंने कहा और मैं फिर भी उदास चेहरा लिए गाड़ी में बैठ तो गई पर मन खिड़की पर ही लगा था। एक - एक सब अपनी - अपनी जगह पर बैठ गए और यात्रा पर निकल पड़े। गाड़ी पापा चला रहे थे वो भी पहली बार , ड्राइवर अंकल साथ तो थे। लेकिन कमान पापा ने संभाल रखी थी। कुछ देर मशक्कत करने के बाद गाड़ी चली और हम सब शांति से बैठ गये। डर तो लग रहा था, एक तो नयी गाड़ी ऊपर से पापा के गाड़ी चलाने का थोड़ा बहुत एक्सपिरियंस था , लेकिन कर भी कुछ नहीं सकते थे। चुपचाप हम सब जा ही रहे थे कि दो या ढाई घंटे के सफर के बाद आया केशकाल घाटी जिसे बारह भांवर भी कहते हैं। क्योंकि ये एक घुमावदार घाटी हैं। लगभग 12 घुमावदार और संकरी रास्ता ।
केशकाल घाटी पर ही देवी का एक मंदिर है जहां पर हर राहगीर थोड़ी देर के लिए ही सही दर्शन जरूर करतें हैं। हम सब भी गाड़ी से उतरे और दर्शन करके एक ओर खड़े हो गए। हम सब ड्राइवर अंकल को गाड़ी चलाने के लिए कहने ही वाले थे कि, संकरी रास्ता है आप ड्राइविंग करें लेकिन पापाजी ने एलान किया कि वो ही गाड़ी चलायेंगे और हमें सही सलामत अपने गंतव्य तक पहुंचा कर रहेंगे।
जिन्होंने भी सुना सब चुप थे क्योंकि पापाजी ने एक बार जो कहा फिर वो करते ही थे। हम सब ने सुना तो हमारी हालत खराब हो गई। मां कि ओर देखा तो वो तो घोड़े हाथी सब बेचकर सो रहीं थीं। हम सबने एक दूसरे को देखा और हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू किया। पापाजी की गाड़ी स्टार्ट हुई और हम सब के मुंह से हनुमान चालीसा का पाठ उच्च स्वर में चलता गया। जैसे - जैसे आगे बढ़ते वैसे - वैसे हम सबकी धड़कनें भी तेज हो जाती। एक बार तो मैंने अपनी बहन को इशारा भी किया कि, अगर बच गए तो उधार में दिए पैसे मैं माफ कर दूंगी और कभी मांगूंगी भी नहीं। और उसने भी डरते हुए एक फीकी हंसी हंस दी। जैसे - तैसे पापाजी ने घाटी पार कराई और गाड़ी से उतर कर ड्राइवर को अपनी सीट दी और खुद उनकी सीट पर बैठ गए। हम सबने ईश्वर को धन्यवाद दिया और पापा जी को देखने लगे थे उन्होंने बड़ी मुश्किल से मुस्कुराते हुए कहा! इस गाड़ी में तुम सबके साथ मैं भी हूं, कैसे तुम सबके साथ साथ अपनी जिंदगी को ख़तरे में डालता । कहकर चुप हो गये और मैं बहन की ओर मुड़कर अपना कहा भूल कर छोटी से अपने उधार के पैसे मांगने लग गई। कभी कभी सोचती हूं कि , काश वो दिन फिर से वापस आ जाएं और मैं अपनी उसी पिछली जिंदगी को एक बार फिर से जी लूं 🌼
Gunjan Kamal
15-Nov-2022 10:11 AM
बिल्कुल सही
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Khushbu
13-Nov-2022 05:50 PM
Nice 👍🏼
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Mahendra Bhatt
04-Nov-2022 04:24 PM
बहुत खूब
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